आज कल लोग न जाने किस विचारों में खोये रहते हैं जीने के लिए हर ज़रूरी काम करते हैं पर खुद के लिए ही जीना भूल जाते हैं। उस परमात्मा का धन्यवाद करना भूल जाते हैं, माता पिता को बोझ समझने लगते हैं, जिस माता पिता के कारण आज वो इस संसार का सुख भोग रहे होते हैं। सोचो अगर आपके माता पिता आपके जन्म के साथ साथ आपको किसी रास्ते या कुड़ेदान मे फ़ेक देते या किसी अजनबी के हाथों आपको बेच देते। फिर कहाँ से मिलता ये जीवन कहाँ से लाते आप ये सुख जो आज एक इंसान बन कर मिल रहा है। माता पिता वो पर्मेश्वर् होते है जो परमात्मा से पहले आते हैं, परमात्मा आपको नौ महीने कोख़ मे रख कर आपको जन्म नही देते हैं वो सिर्फ दिशा निर्देश करते हैं। मगर इस संसार मे आपके आने की खबर से सबसे ज्यादा जो इंसान खुश होता है वो आपके पिता होते हैं। जो कभी अपनी जुबानी नहीं कहते है मगर जिस दिन आप अपने माँ के कोख़ मे आते हैं उस दिन से लेकर अंतिम साँस तक सिर्फ यही कामना करते हैं की मेरे संतान आजीवन सुखी रहे। पिता ही एक ऐसे शख्स़ होते हैं जिनकी छाया में कोई कपट नही होता है। माता के लिए अपना संतान सर्वप्रिय होते हैं मगर पिता बस उस पिता शब्द के सहारे अपनी सारी जिंदगी गुज़र देते हैं। उस परमात्मा से जुड़ने के लिए आपको उनके पास जाना होता है मगर माता पिता रूपी पर्मेश्वर् से जुड़ने के लिए उनके आँखों के सामने होना ही काफी होता है। आप किसी मन्दिर जाइये और जो बाकी सब पूजा अर्चना करते हैं आप भी वही सब करके वापस आ जाइये। आप ऐसा एक दिन कीजिये दो दिन कीजिये, कुछ हफ़्ते कीजिये कुछ महीने तक लगातार इस क्रम को जारी रखिये जब तक आप उस मन्दिर मे अपने घर जैसा न महसूस करने लगे। पहले दिन शायद आपको कुछ अनुभव न हो क्यों की आप उस भीड़ के साथ जा रहे हैं जो नित्य उस परमात्मा से सौदा करने जाया करते हैं। लोगों फूल-माला, फल-मेवे और न जाने क्या क्या ले जाते हैं सौदे के तौर पर आप भी उन लोगों जैसा ये सब ले जाइये। आप दूसरे दिन भी इसी क्रम मे परमात्मा के समक्ष जाइये मगर आज एक फूल कम ले जाये व एक सौदा कम कर के आये उस परमात्मा से। कुछ हफ़्ते या कुछ महीनों बाद एक दिन ऐसा आयेगा जब आप उसी सौदागर भीड़ के साथ उसी मन्दिर मे जाओगे पर तब न आप फूल-माला लेंगे न फल-मेवे लेंगे और न आपके अंतरात्मा मे कोई सौदा होगा। आप नतमस्तक होके उस परमात्मा से इस जीवन के लिए धन्यवाद कहेंगे और मन्दिर के दीवार से टिक कर बैठ के वहाँ उस शंख की ध्वनि सुनना पसंद करेंगे। ये जो क्रम आपने पहले दिन से शुरू किया और शंख की ध्वनि पर आ कर आप नतमस्तक होते हैं इसे आपको किसी ने सिखाया नहीं था और न ये कोई किताब में पढ़ा आपने। ये आपके अंतरात्मा की आवाज़ थी जो शायद ज़िंदगी के इस सौदागरो के भीड़ में खो गया था या सुनाई नहीं दे रहा था। जब आप मन्दिर मे पहले दिन गए थे मन थोड़ा बेचैन था की पूजा खत्म करके ज़िंदगी की दौड़ में वापस जाना है, इस बेचैनी के बोझ के साथ आप सिर्फ अपना एक कदम मन्दिर मे ले गए थे। जैसे जैसे आपने अपने बेचैनी का बोझ कम किया आपके पूजा सामग्री भी कम होती गई अंत मे आप खाली हाथ गए और उस दिन आप अपने पूरे मन से और कर्म से मन्दिर गए। जहाँ सिर्फ आपने परमात्मा के सामने हाथ जोड़े और आपकी सारी बेचैनी शंख की ध्वनि मे गुम सी हो गई । बेशक आपको आज भी ज़िंदगी के उस दौड़ में वापस जाना था पर उस बोझ के साथ नहीं एक मुस्कुराहट के साथ। परमात्मा नहीं बोलते है की मुझसे सौदा करोगे तभी मुझे पा सकोगे या मैं तभी पुकार सुनूँगा। परमात्मा ने हमे पर्मेश्वर् देते हैं माता पिता के रूप में और ये कह कर इस धरा पर ले आते हैं की सेवा करनी है तो माता पिता की करो मगर बोझ समझ कर नही मुस्कुरा कर। इनकी सेवा से मैं प्रसन्न हो जाऊंगा।