Hindi stories | वक्त का फेर.....| हिन्दी कहानी

Hindi stories | हिन्दी कहानी -  "वक्त का फेर"    


हॉस्पिटल का वो बदबुदार अँधेरा कमरा जहाँ शायद जिंदा इंसान भी मुर्दा हो जाएं_ वहाँ एक 70 वर्षीय बुढी औरत अपनी ज़िंदगी के कुछ आखिरी रातें उस कमरे मे बिताने को मजबूर थी। ईश्वर का भी खेल निराला होता है अपनी ही रचाई दुनियाँ में अपनी ही कीमत बड़ा रहा है। कहने को तो शकुंतला बाई एक ऊँचे घराने से ताल्लुक रखतीं थी। वक्त का फेर है राजा को रंक बनने मे समय नही लगता है, पति 10 साल पहले केंसर के कारण चल बसे। बेटे बहु के साथ सब भूल कर नये जीवन के आनंद मे जीने लगी थी। पर शायद उस रचियता को कुछ और ही मंज़ूर था। एक सड़क दुर्घटना में बेटे बहु और पोते के साथ साथ अपने दोनों टांगों को गवा चुकी शकुंतला बाई अब सिर्फ अपने साँसें रुकने का इंतज़ार कर रही हैं। जिंदगी कभी कभी इतनी कठोर हो जाती है मानो दिल करता है ये प्राण अभी निकल जाएं तो अच्छा है, और वही जिंदगी कभी इतनी सौम्य और खूबसूरत लगती है मानो एक जनम जैसे कम पड़ता हो इसे जीने में। अपने आप से अब ऊब चुकी शकुंतला बाई बस दुआओ मे अपनी मौत मांगती है। खाने पीने के साथ जल का भी त्याग कर चुकी उस बुढी आत्मा का मन शायद ही कोई समझ पाता। किसी ने कहा था की__" जाको मन की पीर वही को भावे, दुजा सुने भी तो अपना ही गावे।


भाई को अकेला बोर्डिंग स्कूल छोड़ना सही नही होगा, यहाँ तो अपने ही दुश्मन बने बैठे है ये सारा कुसुर मेरा ही है न मैं बाहर जाने की ज़िद करती और न आज मम्मा पापा हमसे दूर होते। भरोसा करू भी तो किसपे करू अब भरोसे के लायक है भी कौन? हत्तायारा और हथियार दोनों सामने है पर न तो कानून मदद कर रहे हैं और न ईश्वर। घर, काम, भाई इन सब को मैं अकेली कैसे संभालूँगी? 18 साल का एक लड़का जिसे अपने जूते कहाँ रखे है ये तक नहीं पता है वो कैसे इस दुश्मनी की दुनियाँ में खुद को संभालेगा! इन्ही ख्यालों में डूबती हुई माया की कदम धीरे धीरे उसी बद्बुदार कमरे की ओर बड़ रही थी, विदेश से डॉक्टरी की पड़ाई करके आई माया का हाल भी कुछ शकुंतला बाई जैसा ही था पर मरीज के सामने डॉक्टर साहिब के आँखों मे आँसू अच्छे नही लगेंगे। यही सोच के अपने भरी आवाज़ को लय मे लेके एक चंचल सी लड़की का रूप लेकर माया शकुंतला बाई के पास गई। और बोली क्यों अम्मा और कितने दिन इस अंधेरे कमरे में अकेले रहने का इरादा है? जाओ अपने घर पोते पोतिओ के साथ फुटबॉल खेलों। अनजाने मे ही सही मगर माया ने शकुंतला बाई के उस घाव को खरोंच दिया था जिसे वो एक बोझ की तरह अपने सीने मे दबाई हुई थी। 


                      आँखों में एक मन्द मुस्कान लिए करुण स्वर मे माया को आवाज़ दी_ डॉक्टर साहिब एक आघ्रह है बुढे मन की पूरी करोगे? आश्चर्य भरी नज़रों से माया ने पूछा क्या अम्मा इस उम्र में डिस्को जाना है क्या? झुंझलाहट भरी स्वर मे शकुंतला बाई ने माया से कहा आपको जाना है तो आप चले जाइये मगर मेरी एक बात सुनते जाइये, बुढी आँखों मे आँसू देख माया थोड़ी गंभीर हो गई। पास आकर हाथ पकड़ के पूछी क्या बात है अम्मा? क्या चाहिए! डरो मत बोलो क्या हुआ है? माया अब उस बुढी मुख से कुछ ऐसा सुनने जा रही थी जिसकी कल्पना भी माया के सोच से परे था। आँखों से निरंतर आँसू बहे जा रहे थे , स्वर और करुण हो रहे थे, माया का हाथ ऐसे पकड़ी जैसे ईश्वर के चरण मिले है। बेटा ऐसी कोई दवा दे दे जिससे ये आँखे दुबारा न खुले। इस जीवन के बोझ से मुक्त करा दे बड़ी कृपा होगी तेरी। माया कुछ पल के लिए स्तब्ध हो गई की ये कैसी आघ्रह है अम्मा की। माया अपनी तकलिफो को भूल कर बस शकुंतला बाई को देखे जा रही थी, कुछ देर के लिए सारा संसार रुक सा गया था माया के लिए। जहन मे बस एक ही सवाल था की ईश्वर इतना निर्दयी कैसे हो सकता है? फिर जब माया को अपना अतीत याद आया तो लगा की क्या ये कोई इत्तेफाक है या नियति का लिखा कोई संकेत है। एक बुढे जीवन को सहारा मिला और बिना माँ बाप के बच्चों पर एक बड़े का साया मिला। अपनेपन को खून के रिश्ते की जरूरत नहीं होती है, अपने बस अपने हो जाते हैं। .............                                    

                                                                                                                 लेखक -: Lily✒️